आता है याद मुझको गुजरा हुआ ज़माना वो बाग की बहारें वो सब का चहचहाना आजादियाँ कहाँ वो अब अपने घोंसले की अपनी खुशी से आना अपनी खुशी से जाना इकबाल युग निर्माता शायर थे। उनकी शायरी एक विचार के खास निज़ाम से रोशनी ग्रहण करती है। इक़बाल आदमी की महानता के अलमबरदार थे और वो किसी बख्शी हुई जन्नत की बजाय अपने खून-ए-जिगर से स्वयं अपनी जन्नत बनाने की प्रक्रिया को अधिक संभावित और अधिक जीवनदायिनी समझते थे। इसके लिए उसका उपाय तजवीज करते हुए उन्होंने कहा था, "पूरब के राष्ट्रों को ये महसूस कर लेना चाहिए कि ज़िन्दगी अपनी हवेली में किसी तरह का इन्किलाब नहीं पैदा कर सकती जब तक उसकी अंदरूनी गहराईयों में इन्किलाब न पैदा हो और कोई नई दुनिया एक बाहरी अस्तित्व नहीं हासिल कर सकती जब तक उसका वजूद इंसानों के ज़मीर में रूपायित न हो।"" इकबाल की शायरी मूल रूप से सक्रियता व कर्म और निरंतर संघर्ष को बयाँ करती है। यहाँ तक कि उनके यहाँ कभी-कभी ये संघर्ष उद्देश्य प्राप्ति के माध्यम की बजाय खुद मकसद बनती नज़र आती है। - इसी किताब से
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